Wednesday, June 12, 2019

ज्ञान , वैराग्य, माया , भक्ति , जीव और ईश्वर

तुलसीकृत श्रीरामचरित मानस को लगभग सभी ने पढ़ा और सुना है, लेकिन वनवास के दौरान पंचवटी में भगवान श्रीराम जी व लक्ष्मण जी के मध्य जो सबसे महत्वपूर्ण संवाद हुआ था, शायद ही इस ओर किसी का ध्यान गया होगा। वैसे अब भी बहुत कम लोग होंगे, जिन्हें यह पढ़ने के बाद भी पसंद या समझ आए। जो इसके भाव को समझ सकें एवं जीवन में उतार सकें, उनके लिए समर्पित है यह लेख।

 लक्ष्मण जी ने राम जी से अपने मन में उठ रही जिज्ञासा को पांच प्रश्नों के रूप में पूछा था। इसे यदि कोई अपने जीवन में अपना ले तो उसका जीवन पूरी तरह बदल सकता है।

लक्ष्मण जी ने पंचवटी में भगवान श्रीराम जी से पूछा था :

1- ज्ञान किसको कहते हैं?
2- वैराग्य किसको कहते हैं?
3- माया का स्वरूप बतलाइये?
4- भक्ति के साधन बताइये कि भक्ति कैसे प्राप्त हो?
5- जीव और ईश्वर में भेद बतलाइये?

भगवान श्री राम लक्ष्मण जी की बात सुनकर कहते हैं :

थोरेहि महं सब कहउं बुझाई।
सुनहु तात मति मन चित्त लाई।।

अर्थात- थोड़े में ही सब समझा देता हूं। यही विविधता है कि थोड़े में ही ज्यादा समझा देता हू्ं।

1- पहले भगवान ने माया वाला सवाल उठाया है क्योंकि पहले माया को जान लेना चाहिए। भगवान कहते हैं कि माया वैसे तो अनिर्वचनीय है लेकिन फिर भी -

मैं अरु मोर तोर तैं माया।
जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया।।

अर्थात- मैं, मेरा और तेरा - यही माया है, केवल छह शब्दों में बता दिया। मैं अर्थात् जब ''मैं'' आता है तो ''मेरा'' आता है और जहां ''मेरा'' होता है वहां ''तेरा'' भी होता है- तो ये भेद माया के कारण होता है।

माया के भी दो भेद बताये हैं, एक विद्या और दूसरी अविद्या।

एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा।
जा बस जीव परा भवकूपा।।
एक रचइ जग गुन बस जाकें।
प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताकें।।


अर्थात- अविद्या रूपी माया जीव को जन्म-मरण के चक्कर में फंसाती है, भटकता रहता है जीव जन्म अथवा मृत्यु के चक्कर में। और दूसरी विद्या रूपी माया मुक्त करवाती है।

2- दूसरा प्रश्न- ज्ञान किसको कहते हैं?

अर्थात- हम ज्ञानी किसे कहेंगे?, जो बहुत प्रकांड पंडित हो, शास्त्रों को जानता हो, बड़ा ही अच्छा प्रवचन कर सकता हो, दृष्टांत के साथ सिद्धांत को समझाये, संस्कृत तथा अन्य बहुत सी भाषाओं का जिसे ज्ञान हो क्या वह ज्ञानी है?

गोस्वामी तुलसीदास जी ने बड़ी अद्भुत व्याख्या की है।

ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं।
देख ब्रह्म समान सब माहीं।।

अर्थात- ज्ञान उसको कहते हैं- जहां मान न हो अर्थात् जो मान-अपमान के द्वन्द्व से रहित हो और सब में ही जो ब्रह्म को देखे। ज्ञान के द्वारा जब ईश्वर की सर्वव्यापकता का अनुभव हो जाता है तो व्यक्ति सब ही में भगवान को देखने लग जाता है।

3- तीसरा प्रश्न- वैरागी किसको कहेंगे?

अर्थात- हमारी परिभाषा यह है कि भगवा कपड़े पहने हो या फिर सांसारिकता को त्याग दिया हो, सिर पर जटायें हो, माथे पर तिलक हो, हाथ में माला लिए हुए हो, क्या वह वैरागी है?

भगवान श्री राम कहते हैं :

कहिअ तात सो परम बिरागी।
तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी।।

अर्थात- परम वैरागी वह है, जिसने सिद्धियों को तृन अर्थात् तिनके के समान तुच्छ समझा। कहने का तात्पर्य है कि जो सिद्धियों के चक्कर में नहीं फंसता और तीनि गुन त्यागी अर्थात् तीन गुण प्रकृति का रूप यह शरीर है- उससे जो ऊपर उठा अर्थात् शरीर में भी जिसकी आसक्ति नहीं रही- वही परम वैरागी है।

4- चौथा प्रश्न- जीव और ईश्वर में भेद-

माया ईस न आपु कहुं जान कहिअ सो जीव।
बंध मोच्छ प्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव।।

अर्थात् जो माया को, ईश्वर को और स्वयं को नहीं जानता, वह जीव है और जीव को उसके कर्मानुसार बंधन तथा मोक्ष देने वाला ईश्वर।

5- पांचवां प्रश्न- जिनसे भक्ति प्राप्त हो जाए, भक्ति के वे साधन कौन से हैं?

भगवान श्री राम कहते हैं :

भगति कि साधन कहउँ बखानी। सुगम पंथ मोहि पावहिं प्रानी।।
प्रथमहिं विप्र चरन अति प्रीती। निज निज कर्म निरत श्रुति रीती।।
एहि कर फल पुनि विषय विरागा। तब मम धर्म उपज अनुरागा।।
श्रवनादिक नव भक्ति दृढ़ाही। मम लीला रति अति मन माहीं।।

अर्थात- भक्ति के साधन बता रहा हूं, जिससे प्राणी मुझे बड़ी सरलता से पा लेता है। सबसे पहले विप्रों के चरण विपरें। विप्र का अर्थ है, जिसका जीवन विवेक प्रदान हो, ऐसे विप्रों के चरण विपरें। वेदों के बताए मार्ग पर चलें, अपने कर्तव्य-कर्म का पालन करें। इससे विषयों में वैराग्य होगा तथा वैराग्य उत्पन्न होने पर भगवान के (भागवत) धर्म में प्रेम होगा। तब श्रवणादिक नौ प्रकार की भक्तियां आ जाएंगी और भगवान की लीलाओं से प्रेम हो जाएगा।

संतों के चरणों में प्रेम हो, मन, कर्म और वचन से भगवान का भजन करे तथा गुरु, पिता, माता, भाई, पति और देवता सबमें मुझे ही देखे, सबको वंदन करे, सबकी सेवा करे। इतना कर ले, तो समझो मिल भक्ति मिल गई। अब भक्ति मिली है या नहीं, इसका हमें कैसे पता चले... तो इसके लिये दो चौपाई और बताई हैं।

मम गुन गावत पुलक सरीरा। गदगद गिरा नयन बह नीरा।।
काम आदि मद दंभ न जाकें। तात निरंतर बस मैं ताकें।।

अर्थात- मेरे गुणों को गाते समय जिसका तन पुलकायमान हो उठे, शरीर पुलकित हो जाए, वाणी गदगद हो जाए और नेत्रों से नीर बहने लगे। इसके साथ ही... "काम आदि मद दंभ न जाके"

जिसमें काम (विकार) न हो, मद (अहंकार) न हो और सबसे बड़ी बात दंभ (पाखंड) न हो- वही भक्त है। भगवान ऐसे भक्त के सदा वश में रहते हैं।

दोहा- बचन कर्म मन मोरि गति भजन करहिं नि:काम।
तिन्ह के हृदय कमल महुं करउँ सदा बिश्राम।।

आगे भगवान कहते हैं- जिसको मन, कर्म और वचन से मेरा ही आश्रय है तथा जो निष्काम भाव से मेरा भजन करता है, उसके हृदय में मैं सदा विश्राम करता हूं।
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Jawan  में दो पक्ष हैं ।
प्रथम वयक्त 
दूसरा अवयकत।

वयक्त हमारा देह,इन्द्रिय मन बुद्धि इनसे माने हुए सभी रिश्ते नाते पुत्र,मित्र,पत्नी,पति माता पिता आदि सभी प्रिय जन,वित्त,समृद्धि मान सम्मान प्रतिष्ठा यश कीर्ति जो जो भी संपत्ति इस संसार मै अर्जित की है वह सब वयक्त उपकरणौ से ही प्राप्त है,इनका फल अवयकत की (भगवान) की प्राप्ति असंभव है।

अवयकय की प्राप्ति अवयकत (अपने स्वरूप) को जानने से ही होगी।मै कौन हू।मै भगवान(अंशी का) अंश हू।एक ही जाति का हू।किन्तु भगवान से बिछौडने के कारण अपने स्वरूप और अपने अंशी को भूला हुआ हू।और पहिले वयक्त पक्ष से संबंध जोड रखा है।मनुष्य जन्म अति दुर्लभ है।इसी से भगवान् की प्राप्ति संभव है।भगवान का भजन,कीर्तन गुणगान, सत्संग सेवा संतौ की सेवा सत्संग ही जीव को उसके स्वरूप का (अंश होने का) ज्ञान और अंशी (भगवान) का ज्ञान करा कर ऐक दूसरे मै प्रेम और आनंद की अनुभूति स्वतः ही होगी।इसके लिए विवेक धैर्य और भक्ति और सबसे अधिक शरणागति फल स्वरूप प्राप्त होकर संसार से वैराग्य और गुणातीत भगवान् मै व्याकुलता पैदा होती है।फिर तो सांस सांस मै उसी श्री कृष्ण की सूरत दिखाईं सुनाईं देंगी ।


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