Friday, April 22, 2022

आजीवन स्वस्थ रहने के नियम

 एसिडिटी बदहजमी गैस अपच की शिकायत को करें हमेशा के लिए दूर 


*एसिडिटी के कारण क्या हैं*

1. मसालेदार चटपटा खाना खाना

2. स्मोकिंग, शराब और दूसरे नशे करना

3. लम्बे समय तक ख़ाली पेट रखना

4. रात का भोजन सही समय पर नही करना

5. ख़ाली पेट चाय का सेवन  करना 

6. शरीर में गर्मी बढ़ जाना


*एसिडिटी के लक्षण*

1. पेट में जलन महसूस होना

2.  कड़वी और खट्टी डकारें आना

3.  पेट में गैस बनना  

4.  खाने के बाद पेट में दर्द 

5. कब्ज़ की शिक़ायत होना

6.  उल्टी आना या फिर बार-बार उबाक आना


*एसिडिटी दूर करने का घरेलू इलाज*

1. एसिडिटी दूर करने के लिए सुबह शाम एक गिलास पानी के साथ *आँवले* का चूर्ण खायें। इसके बाद आधे घंटे तक कुछ और नहीं खाना है। अगर चूर्ण नहीं है तो इसकी जगह आप आँवले का जूस भी पी सकते हैं।


2.  *अदरक* को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर पानी में उबाल लें। फिर इस पानी को छानकर गुनगुना पियें। अदरक की चाय भी एसिडिटी से छुटकारा देती है।


3. हर दिन एलोवेरा जूस पीने वाले लोगों को पेट में एसिडिटी की समस्या नहीं होती है।


4.  1-1 चम्मच जीरा, सौंफ, अजवाइन और सावा के बीज पानी में उबालें। इसे छानकर पानी को दिन में 2-3 बार पिएं। इस प्रयोग से पेट की समस्याओं से छुटकारा मिलेगा


5.  यष्टि मधु और दालचीनी चूर्ण को शहद के साथ मिलाकर गोलियाँ बनायें। फिर इन्हें आवश्यकतानुसार चूसें।


6.  एक गिलास दूध लीजिये और उसमे चुटकी भर अश्वगंधा मिलाकर पीने से एसिडिटी समाप्त होती है।

-



आजीवन स्वस्थ रहने के नियम*


*🚩आजकल पाये जाने वाले अधिकांश रोगों का कारण अस्त-व्यस्त दिनचर्या व विपरीत आहार ही है। हम अपनी दिनचर्या शरीर की जैविक घड़ी के अनुरूप बनाये रखें तो शरीर के विभिन्न अंगों की सक्रियता का हमें अनायास ही लाभ मिलेगा। इस प्रकार थोड़ी-सी सजगता हमें स्वस्थ जीवन की प्राप्ति करा देगी।*

db

_*🚩जैविक घड़ी पर आधारित शरीर की दिनचर्या ऐसे बनाएं…*_


*★ प्रातः 3 से 5 – इस समय जीवनीशक्ति विशेष रूप से फेफड़ो में होती है। थोड़ा गुनगुना पानी पीकर खुली हवा में घूमना एवं प्राणायाम करना चाहिए । इस समय दीर्घ श्वसन करने से फेफड़ों की कार्यक्षमता खूब विकसित होती है। उन्हें शुद्ध वायु ( ऑक्सीजन) और ऋण आयन विपुल मात्रा में मिलने से शरीर स्वस्थ व स्फूर्तिमान होता है। ब्रह्म मुहूर्त में उठने वाले लोग बुद्धिमान व उत्साही होते है, और सोते रहनेवालो का जीवन निस्तेज हो जाता है ।*


*★ प्रातः 5 से 7 – इस समय जीवनीशक्ति विशेष रूप से आंत में होती है। प्रातः जागरण से लेकर सुबह 7 बजे के बीच मल-त्याग एवं स्नान कर लेना चाहिए । सुबह 7 के बाद जो मल – त्याग करते हैं, उनकी आँतें मल में से त्याज्य द्रवांश का शोषण कर मल को सुखा देती हैं। इससे कब्ज तथा कई अन्य रोग उत्पन्न होते हैं।*


*★ सुबह 7 से 9 – इस समय जीवनीशक्ति विशेष रूप से आमाशय में होती है। यह समय भोजन के लिए उपर्युक्त है । इस समय पाचक रस अधिक बनते हैं। भोजन के बीच –बीच में गुनगुना पानी (अनुकूलता अनुसार ) घूँट-घूँट पिये।*


*★ सुबह 11 से 1 – इस समय जीवनीशक्ति विशेष रूप से हृदय में होती है। दोपहर 12 बजे के आस–पास मध्याह्न – संध्या (आराम ) करने की हमारी संस्कृति में विधान है। इसीलिए भोजन वर्जित है । इस समय तरल पदार्थ ले सकते हैं। जैसे मट्ठा पी सकते हैं। दही खा सकते हैं।*


*★ दोपहर 1 से 3 – इस समय जीवनीशक्ति विशेष रूप से छोटी आंत में होती है। इसका कार्य आहार से मिले पोषक तत्त्वों का अवशोषण व व्यर्थ पदार्थों को बड़ी आँत की ओर धकेलना है। भोजन के बाद प्यास अनुरूप पानी पीना चाहिए । इस समय भोजन करने अथवा सोने से पोषक आहार-रस के शोषण में अवरोध उत्पन्न होता है व शरीर रोगी तथा दुर्बल हो जाता है ।*


*★ दोपहर 3 से 5 – इस समय जीवनीशक्ति विशेष रूप से मूत्राशय में होती है । 2-4 घंटे पहले पिये पानी से इस समय मूत्र-त्याग की प्रवृति होती है।*


*★ शाम 5 से 7 – इस समय जीवनीशक्ति विशेष रूप से गुर्दे में होती है । इस समय हल्का भोजन कर लेना चाहिए । शाम को सूर्यास्त से 40 मिनट पहले भोजन कर लेना उत्तम रहेगा। सूर्यास्त के 10 मिनट पहले से 10 मिनट बाद तक (संध्याकाल) भोजन नही करना चाहिए। शाम को भोजन के तीन घंटे बाद दूध पी सकते हैं । देर रात को किया गया भोजन सुस्ती लाता है यह अनुभवगम्य है।*


*★ रात्रि 7 से 9 – इस समय जीवनीशक्ति विशेष रूप से मस्तिष्क में होती है । इस समय मस्तिष्क विशेष रूप से सक्रिय रहता है । अतः प्रातःकाल के अलावा इस काल में पढ़ा हुआ पाठ जल्दी याद रह जाता है । आधुनिक अन्वेषण से भी इसकी पुष्टि हुई है।*


*★ रात्रि 9 से 11 – इस समय जीवनीशक्ति विशेष रूप से रीढ़ की हड्डी में स्थित मेरुरज्जु में होती है। इस समय पीठ के बल या बायीं करवट लेकर विश्राम करने से मेरूरज्जु को प्राप्त शक्ति को ग्रहण करने में मदद मिलती है। इस समय की नींद सर्वाधिक विश्रांति प्रदान करती है । इस समय का जागरण शरीर व बुद्धि को थका देता है । यदि इस समय भोजन किया जाय तो वह सुबह तक जठर में पड़ा रहता है, पचता नहीं और उसके सड़ने से हानिकारक द्रव्य पैदा होते हैं जो अम्ल (एसिड) के साथ आँतों में जाने से रोग उत्पन्न करते हैं। इसलिए इस समय भोजन करना खतरनाक है।*


*★ रात्री 11 से 1 – इस समय जीवनीशक्ति विशेष रूप से पित्ताशय में होती है । इस समय का जागरण पित्त-विकार, अनिद्रा , नेत्ररोग उत्पन्न करता है व बुढ़ापा जल्दी लाता है । इस समय नई कोशिकाएं बनती हैं ।*


*★ रात्रि 1 से 3 – इस समय जीवनीशक्ति विशेष रूप से लीवर में होती है । अन्न का सूक्ष्म पाचन करना यह यकृत का कार्य है। इस समय का जागरण यकृत (लीवर) व पाचन-तंत्र को बिगाड़ देता है । इस समय यदि जागते रहे तो शरीर नींद के वशीभूत होने लगता हैं, दृष्टि मंद होती है और शरीर की प्रतिक्रियाएं मंद होती हैं। अतः इस समय सड़क दुर्घटनाएँ अधिक होती हैं।*


*🚩नोट :– ऋषियों व आयुर्वेदाचार्यों ने बिना भूख लगे भोजन करना वर्जित बताया है। अतः प्रातः एवं शाम के भोजन की मात्रा ऐसी रखे, जिससे ऊपर बताए भोजन के समय में खुलकर भूख लगे। जमीन पर कुछ बिछाकर सुखासन में बैठकर ही भोजन करें। इस आसन में मूलाधार चक्र सक्रिय होने से जठराग्नि प्रदीप्त रहती है। कुर्सी पर बैठकर भोजन करने में पाचनशक्ति कमजोर तथा खड़े होकर भोजन करने से तो बिल्कुल नहींवत् हो जाती है। इसलिए ʹबुफे डिनरʹ से बचना चाहिए।*


*🚩पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र का लाभ लेने हेतु सिर पूर्व या दक्षिण दिशा में करके ही सोयें, अन्यथा अनिद्रा जैसी तकलीफें होती हैं।*


*🚩शरीर की जैविक घड़ी को ठीक ढंग से चलाने हेतु रात्रि को बत्ती बंद करके सोयें। इस संदर्भ में हुए शोध चौंकाने वाले हैं। देर रात तक कार्य या अध्ययन करने से और बत्ती चालू रख के सोने से जैविक घड़ी निष्क्रिय होकर भयंकर स्वास्थ्य-संबंधी हानियाँ होती हैं। अँधेरे में अथवा कम प्रकाश में सोने से यह जैविक घड़ी ठीक ढंग से चलती है।*


*🚩आप अपना जीवन नियमित बनाएं और स्वस्थ रहें।*

Sunday, April 17, 2022

जैन धर्म एक दृष्टि में

 


जैन धर्म भारत का एक प्राचीन धर्म है। ‘जैन धर्म’ का अर्थ है ‘जिन द्वारा प्रवर्तित धर्म’। ‘जैन’ कहते हैं उन्हें, जो ‘जिन’ के अनुयायी हों। ‘जिन’ शब्द बना है ‘जि’ धातु से। ‘जि’ माने-जीतना । ‘जिन’ माने जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को जीत लिया, वे हैं ‘जिन’। जैन धर्म अर्थात ‘जिन’ भगवान् का धर्म। जैन धर्म में अहिंसा को परम धर्म माना जाता है और कोई सृष्टिकर्ता ईश्वर नहीं माना जाता।

                                    

जैन ग्रंथों के अनुसार इस काल के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव द्वारा जैन धर्म का प्रादुर्भाव हुआ था। जैन धर्म की प्राचीनता प्रामाणिक करने वाले अनेक उल्लेख अजैन साहित्य और खासकर वैदिक साहित्य में प्रचुर मात्रा में हैं।


व्रत

जैन धर्म में श्रावक और मुनि दोनों के लिए पाँच व्रत बताए गए है। तीर्थंकर आदि महापुरुष जिनका पालन करते है, वह महाव्रत कहलाते है –


1.अहिंसा – किसी भी जीव को मन, वचन, काय से पीड़ा नहीं पहुँचाना।

2.सत्य – हित, मित, प्रिय वचन बोलना।

3.अस्तेय – बिना दी हुई वस्तु को ग्रहण नहीं करना।

4.ब्रह्मचर्य – मन, वचन, काय से मैथुन कर्म का त्याग करना।

5.अपरिग्रह- पदार्थों के प्रति ममत्वरूप परिणमन का बुद्धि पूर्वक त्याग।


मुनि इन व्रतों का सूक्ष्म रूप से पालन करते है, वही श्रावक स्थूल रूप से करते है।

                            

जैन ईश्वर को मानते हैं। लेकिन ईश्वर को सत्ता सम्पन्न नही मानते ईश्वर सर्व शक्तिशाली त्रिलोक का ज्ञाता द्रष्टा है पर त्रिलोक का कर्ता नही। जैन लोग ईश्वर को सृष्टिकर्ता नहीं मानते, जिन या अरिहन्त को ही ईश्वर मानते हैं। उन्हीं की प्रार्थना करते हैं और उन्हीं के निमित्त मंदिर आदि बनवाते हैं।

                                 

जैन धर्म मे 24 तीर्थंकरों को माना जाता है।

                                  

तीर्थंकर धर्म तीर्थ का प्रवर्तन करते है। इस काल के २४ तीर्थंकर है-


क्रमांक तीर्थंकर

1 ऋषभदेव- इन्हें ‘आदिनाथ’ भी कहा जाता है

2 अजितनाथ

3 सम्भवनाथ

4 अभिनंदन जी

5 सुमतिनाथ जी

6 पद्ममप्रभु जी

7 सुपार्श्वनाथ जी

8 चंदाप्रभु जी

9 सुविधिनाथ- इन्हें ‘पुष्पदन्त’ भी कहा जाता है

10 शीतलनाथ जी

11 श्रेयांसनाथ

12 वासुपूज्य जी

13 विमलनाथ जी

14 अनंतनाथ जी

15 धर्मनाथ जी

16 शांतिनाथ

17 कुंथुनाथ

18 अरनाथ जी

19 मल्लिनाथ जी

20 मुनिसुव्रत जी

21 नमिनाथ जी

22 अरिष्टनेमि जी – इन्हें ‘नेमिनाथ’ भी कहा जाता है। जैन मान्यता में ये नारायण श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे।

23 पार्श्वनाथ

24 वर्धमान महावीर – इन्हें वर्धमान, सन्मति, वीर, अतिवीर भी कहा जाता है।

                                

अर्हंतं , जिन, ऋषभदेव, अरिष्टनेमि आदि तीर्थंकरों का उल्लेख ऋग्वेदादि में बहुलता से मिलता है, जिससे यह स्वतः सिद्ध होता है कि वेदों की रचना के पहले जैन-धर्म का अस्तित्व भारत में था।श्रीमद् भागवत में श्री ऋषभदेव को विष्णु का आठवाँ अवतार और परमहंस दिगंबर धर्म का प्रतिपादक कहा है। विष्णु पुराण में श्री ऋषभदेव, मनुस्मृति में प्रथम जिन (यानी ऋषभदेव ) स्कंदपुराण , लिंगपुराण आदि में बाईसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि का उल्लेख आया है। दीक्षा मूर्ति-सहस्रनाम, वैशम्पायन सहस्रनाम महिम्न स्तोत्र में भगवान जिनेश्वर व अरहंत कह के स्तुति की गई है।

                                  

योग वाशिष्ठ में श्रीराम ‘जिन’ भगवान की तरह शांति की कामना करते हैं। 

                                 

इसी तरह रुद्रयामलतंत्र में भवानी को जिनेश्वरी, जिनमाता, जिनेन्द्रा कहकर संबोधन किया है।

                                 

नगर पुराण में कलयुग में एक जैन मुनि को भोजन कराने का फल कृतयुग में दस ब्राह्मणों को भोजन कराने के बराबर कहा गया है। अंतिम दो तीर्थंकर, पार्श्वनाथ और महावीर स्वामी ऐतिहासिक पुरुष है महावीर का जन्म ईसा से ५९९ वर्ष पहले होना ग्रंथों से पाया जाया है।

                                 

शेष के विषय में अनेक प्रकार की अलौकीक और प्रकृति विरुद्ध कथाएँ हैं। ऋषभदेव की कथा भागवत आदि कई पुराणों में आई है और उनकी गणना हिंदुओं के २४ अवतारों में है। भगवान महावीर स्वामी के प्रधान शिष्य इंद्रभूति गौतम थे जिन्हें कुछ युरोपियन विद्वानों ने भ्रमवश शाक्य मुनी गोतम समझा था।

                          

जैन धर्म में दो संप्रदाय है-श्वेतांबर और दिगंबर। इनमें तत्व या सिद्धांतों में कोई भेद नहीं है।

                           

अर्हत् देव ने संसार को द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से अनादि बताया है। जगत् का न तो कोई हर्ता है और न जीवों को कोई सुख दुःख देनेवाला है।अपने अपने कर्मों के अनुसार जीव सुख दुःख पाते हैं। जीव या आत्मा का मूल स्वभान शुद्ध, बुद्ध, सच्चिदानंदमय है, केवल पुदगल या कर्म के आवरण से उसका मूल स्वरुप आच्छादित हो जाता है। जिस समय यह पौद्गलिक भार हट जाता है उस समय आत्मा परमात्मा की उच्च दशा को प्राप्त होता है। जैन मत ‘स्याद्वाद’ के नाम से भी प्रसिद्ध है। स्याद्वाद का अर्थ है अनेकांतवाद अर्थात् एक ही पदार्थ में नित्यत्वऔर अनित्यत्व, सादृश्य और विरुपत्व, सत्व और असत्व, अभिलाष्यत्व और अनभिलाष्यत्व आदि परस्पर भिन्न धर्मों का सापेक्ष स्वीकार। इस मत के अनुसार आकाश से लेकर दीपक पर्यंत समस्त पदार्थ नित्यत्व और अनित्यत्व आदि उभय धर्म युक्त है।

  

सात तत्त्व


जैन ग्रंथों में सात तत्त्वों का वर्णन मिलता हैं।

1. जीव- जैन दर्शन में आत्मा के लिए “जीव” शब्द का प्रयोग किया गया हैं। आत्मा द्रव्य जो चैतन्यस्वरुप है।

2. अजीव- जड़ या की अचेतन द्रव्य को अजीव (पुद्गल) कहा जाता है।

3. आस्रव – पुद्गल कर्मों का आस्रव करना

4. बन्ध- आत्मा से कर्म बन्धना

5. संवर- कर्म बन्ध को रोकना

6. निर्जरा- कर्मों को शय करना

7. मोक्ष- जीवन व मरण के चक्र से मुक्ति को मोक्ष कहते हैं।


नौ पदार्थ


जैन ग्रंथों के अनुसार जीव और अजीव, यह दो मुख्य पदार्थ हैं। आस्रव,बन्ध,संवर,निर्जरा,मोक्ष,पुण्य, पाप अजीव द्रव्य के भेद हैं।


छह द्रव्य (जैन दर्शन)


छः शाश्वत द्रव्य


जैन धर्म के अनुसार लोक ६ द्रव्यों (सब्स्टेंस) से बना है। यह ६ द्रव्य शाश्वत हैं अर्थात इनको बनाया या मिटाया नहीं जा सकता।यह है जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म , आकाश और काल।


रत्नत्रय


सम्यक् दर्शन

सम्यक् ज्ञान

सम्यक् चारित्र

यह रत्नत्रय आत्मा को छोड़कर अन्य किसी द्रव्य में नहीं रहता।


चार कषाय


क्रोध, मान, माया, लोभ।


चार गति


देव गति, मनुष्य गति, तिर्यञ्च गति, नर्क गति, (पञ्चम गति = मोक्ष)।


चार निक्षेप


नाम निक्षेप, स्थापना निक्षेप, द्रव्य निक्षेप, भाव निक्षेप।


सम्यक्त्व के आठ अंग

निःशंकितत्त्व, निःकांक्षितत्त्व,

निर्विचिकित्सत्त्व, अमूढदृष्टित्व, उपबृंहन /उपगूहन, स्थितिकरण, प्रभावना, वात्सल्य


अहिंसा


अहिंसा और जीव दया पर बहुत ज़ोर दिया जाता है। सभी जैन शाकाहारी होते हैं।


अनेकान्तवाद


अनेकान्तवाद का अर्थ है- एक ही वस्तु में परस्पर विरोधी अनेक धर्म युगलों का स्वीकार।


स्यादवाद


स्यादवाद का अर्थ है- विभिन्न अपेक्षाओं से वस्तुगत अनेक धर्मों का प्रतिपादन।


मन्त्र


जैन धर्म का परम पवित्र और अनादि मूलमंत्र है-


णमो अरिहंताणं। णमो सिद्धाणं। णमो आइरियाणं। णमो उवज्झायाणं। णमो लोए सव्वसाहूणं॥


अर्थात अरिहंतों को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, आचार्यों को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार, सर्व साधुओं को नमस्कार। ये पाँच परमेष्ठी हैं।


काल चक्र


जैन कालचक्र दो भाग में विभाजित है : उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी

जिस प्रकार काल हिंदुओं में मन्वंतर कल्प आदि में विभक्त है उसी प्रकार जैन में काल दो प्रकार का है— उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी।


प्रत्येक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में चौबीस चौबीस जिन तीर्थंकर होते हैं। ऊपर जो २४ तीर्थंकर गिनाए गए हैं वे वर्तमान अवसर्पिणी के हैं। जो एक बार तीर्थकर हो जाते हैं वे फिर दूसरी उत्सिर्पिणी या अवसर्पिणी में जन्म नहीं लेते। प्रत्येक उत्सिर्पिणी या अवसर्पिणी में नए नए जीव तीर्थंकर हुआ करते हैं। इन्हीं तीर्थंकरों के उपदेशों को लेकर गणधर लोग द्वादश अंगो की रचना करते हैं। ये ही द्वादशांग जैन धर्म के मूल ग्रंथ माने जाते है।


इनके नाम ये हैं—


आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, भगवती सूत्र, ज्ञाताधर्मकथा, उपासक दशांग, अंतकृत् दशांग, अनुत्तोरोपपातिक दशांग, प्रश्न व्याकरण, विपाकश्रुत, हृष्टिवाद। 


इनमें से ग्यारह अंश तो मिलते हैं पर बारहवाँ हृष्टिवाद नहीं मिलता। ये सब अंग अर्धमागधी प्राकृत में है और अधिक से अधिक बीस बाईस सौ वर्ष पुराने हैं। इन आगमों या अंगों को श्वेताबंर जैन मानते हैं। पर दिगंबर पूरा पूरा नहीं मानते। उनके ग्रंथ संस्कृत में अलग है जिनमें इन तीर्थंकरों की कथाएँ है और २४ पुराण के नाम से प्रसिद्ध हैं।

                        

जैन धर्म कितना प्राचीन है, ठीक ठीक नहीं कहा जा सकता। जैन ग्रंथो के अनुसार जैन धर्म अनादिकाल से है। महावीर स्वामी या वर्धमान ने ईसा से ५२७ वर्ष पूर्व निर्वाण प्राप्त किया था। इसी समय से पीछे कुछ लोग विशेषकर यूरोपियन विद्वान् जैन धर्म का प्रचलित होना मानते हैं। जैनों ने अपने ग्रंथों को आगम , पुराण आदि में विभक्त किया है।


प्रो॰ जेकोबी आदि के आधुनिक अन्वेषणों के अनुसार यह सिद्ध किया गया है की जैन धर्म बौद्ध धर्म से पहले का है। उदयगिरि , जूनागढ आदि के शिलालेखों से भी जैनमत की प्राचीनता पाई जाती है। 


हिन्दू ग्रन्थ, स्कन्द पुराण (अध्याय ३७) के अनुसार:

“ऋषभदेव नाभिराज के पुत्र थे, ऋषभ के पुत्र भरत थे, और इनके ही नाम पर इस देश का नाम “भारतवर्ष” पड़ा”।


भारतीय ज्योतिष में यूनानियों की शैली का प्रचार विक्रमीय संवत् से तीन सौ वर्ष पीछे हुआ।पर जैनों के मूल ग्रंथ अंगों में यवन ज्योतिष का कुछ भी आभास नहीं है। जिस प्रकार ब्रह्मणों की वेद संहिता में पंचवर्षात्मक युग है और कृत्तिका से नक्षत्रों की गणना है उसी प्रकार जैनों के अंग ग्रंथों में भी है। इससे उनकी प्राचीनता सिद्ध होती है।

         

भगवान महावीर के बाद


भगवान महावीर के पश्चात इस परंम्परा में कई मुनि एवं आचार्य भी हुये है, जिनमें से प्रमुख हैं-


भगवान महावीर के पश्चात ६२ वर्ष में तीन केवली (५२७ -४६५ बी सी )

1. आचार्य गौतम गणधर (६०७ -५१५  बी .सी   .)

2. आचार्य सुधर्मास्वामी (६०७ -५०७  बी .सी .)

3. आचार्य जम्बूस्वामी (५४२ -४६५  बी .सी .)


इसके पश्चात 100 बर्षो में पॉच श्रुत केवली (४६५ -३६५  बी .सी .)

आचार्य भद्रबाहु- अंतिम श्रुत केवली (४३३ -३५७ )

आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी (२००  ए .डी .)

आचार्य उमास्वामी (२००  ए .डी .)

आचार्य समन्तभद्र

आचार्य पूज्यपाद (४७४ -५२५ )

आचार्य वीरसेन (७९० -८२५ )

आचार्य जिनसेन (८०० -८८० )

आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती


 धर्मग्रंथ


समस्त जैन आगम ग्रंथो को चार भागो मैं बांटा गया है

(१) प्रथमानुयोग्

(२) करनानुयोग

(३) चरणानुयोग

(४) द्रव्यानुयोग


तत्त्वार्थ सूत्र- सभी जैनों द्वारा स्वीकृत ग्रन्थ


दिगम्बर ग्रन्थ : प्रमुख जैन ग्रन्थ हैं :-


षट्खण्डागम- मूल आगम ग्रन्थ


आचार्य कुंद कुंद द्वारा विरचित ग्रन्थ-


समयसार , प्रवचनसार, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, आदिपुराण, इष्टोपदेश, आप्तमीमांसा, मूलाचार, द्रव्यसंग्रह, गोम्मटसार,


श्वेताम्बर ग्रन्थ: कल्पसूत्र


त्यौहार: जैन धर्म के प्रमुख त्यौहार इस प्रकार हैं।

पंचकल्याणक

महावीर जयंती

पर्युषण

ऋषिपंचमी

जैन धर्म में दीपावली

ज्ञान पंचमी

दशलक्षण धर्म


जैन दर्शन का अगाथ भण्डार हैं और अब नित नए ढंग से नयी नयी शोध हो रहे हैं जिससे जैन सिद्धांत की पुष्टि होती हैं ।