Sunday, April 14, 2019

Where Jains Are Heading , Why Jain Ideals Are Getting Ignored

*हार्दिक निवेदन*
(copied from whatsapp message)
(संस्कृति संरक्षण हमारा दायित्व)

*लेख बड़ा है पर पढ़ने का कष्ट कीजियेगा, संभव हो तो टिप्पणी भी कीजियेगा*

विचारकों ने कहा है - किसी भी देश/जाति/समाज को नष्ट करना हो तो उसकी संस्कृति, उसके साहित्य को नष्ट कर दो वह स्वयमेव नष्ट हो जायेगी क्योंकि संस्कृति व साहित्य से ही तो देश, समाज, धर्म, जाति की पहचान होती है।

वीतरागता/अहिंसा/अपरिग्रह / अकर्तावाद/ अनेकान्त वाद  की पोषक जैन संस्कृति के साथ इससे विरुद्ध मत रखने वाले बहुसंख्यक समाज के नेताओं ने हजारों वर्ष पहले हमारे साहित्य को नष्ट कर जिनशासन को नष्ट करने का निष्फल प्रयास किया। उनकी असफलता का कारण यह रहा कि उन्होंने अपने बाहुबल से साहित्य तो नष्ट किया परन्तु हमारे पूर्वजों ने मनोबल मजबूत रखते हुए अपने संस्कारों/विचारों को निरन्तर वृद्धिंगत रखते हुए अपने आपको, समाज को जीवित रखा।

आज अपनी संस्कृति का संहार करने वाले विदेशी आक्रान्ता या अन्य धर्म/समाज के नेता नहीं वरन् हम स्वयं हैं। *घर का भेदी लंका ढ़ाये* की कहावत चरितार्थ हो रही है।

विगत लगभग ५० वर्ष से आधुनिक /भौतिकता की भोगवादी संस्कृति का प्रसार इतनी तेजी से हो रहा है मानो सुनामी आ रही हो और उसका सर्वाधिक नुकशान हमारी अहिंसक/सात्विक/वीतरागी/ अपरिग्रही संस्कृति का ही हो रहा है।

अंग्रेजी भाषा, अंग्रेजीयत, विदेश भागने और कैसे भी धन- कमाकर अत्याधुनिक संसाधनों को एकत्र कर चार्वाक् -दर्शन के सिद्धान्त के अनुसार *ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्* मात्र भोगोपभोग करना ही लक्ष्य बनता जा रहा है।

प्रदर्शन व स्वाद के लिए हमारा समाज भी कैसे भी धन- कमाना व कैसे भी खर्च करने की ओर बढ़ रहा है।

अंग्रेजी माध्यम के दौर में हमारे आचार्यों की *प्राकृत* भाषा का अध्ययन तो दूर उसका नाम जानने वाले भी कम होते जा रहे हैं।

*जैन संस्कृति की तीन निशानी- जिन -दर्शन, दिन में भोजन, पिये छानकर पानी* भी लुप्त होते जा रहे हैं।

अध्ययन व व्यवसाय की व्यस्तता, देर तक टी वी, वॉटसएप चलाकर देर से सोकर उठने, माता-पिता से सही प्रेरणा न मिलने से बाल-किशोर-युवा दिन मंदिर जाने के नाम से ही डरने लगा है।

होटल व गार्डन की संस्कृति ने जैन समाज के ही सैकड़ों/हजारों युवाओं ही नहीं प्रौढ़ों तक को एक साथ रात्रि में जमीकंद व अन्य अभक्ष्यों, के साथ मजे व गर्व से एक साथ बिना छने पानी से बने भोजन को करते देखा जाना आम बात हो गई है।

इस तरह जैन समाज व अन्य कोई भी समाज में कोई भेद ही दिखाई नहीं देता इस तरह हम अपनी पहचान/ अस्मिता/ संस्कृति का विनाश कर महा पाप के भागीदार बन रहे हैं जिसके फल में अनगिनती जन्मों में भी जैन धर्म पाना तो दूर मनुष्य बनना भी मुश्किल हो जायेगा।

ध्यान रखना करोड़ों की संपत्ति, बड़ा परिवार, पद, सुन्दरता मात्र एक छोटे से एक्सीडेण्ट या कैंसर, हार्टअटैक, ब्रैन हैमरेज जैसी बीमारियों जो कि आज किसी भी उम्र में हो रही हैं से एक दिन में ही समाप्त हो सकते हैं-अर्थात् छूट सकते हैं- कुछ भी साथ नहीं जायेगा।

ऐसे वातावरण में भी जो धर्म पालन कर रहे हैं जो संस्थान, व्यक्ति तन-मन-धन से जिनधर्म के प्रचार में लग रहे हैं उनको वंदन है।

मैं सभी युवाओं से निवेदन करना चाहता हूँ मित्रो ! आपका पुण्योदय है जो आप आई.आई.टी., आई. आई. एम., सी. ए., डॉक्टर, राज्य/भारतीय प्रशासनिक सेवा या अन्य किसी उन्नत व्यवसाय में सफल हुए हैं। इस उपलब्धि से आपका परिवार व समाज गौरवान्वित अनुभव करता है।

आपको तार्किक तीक्ष्ण बुद्धि प्राप्त हुई है यदि आप जैन सिद्धान्तों व उसकी वैज्ञानिक अहिंसक जीवन पद्धति का स्वागत विवेक से अध्ययन व पालन करोगे तो यह आपका *महा पुण्योदय* होगा। आपके जीवन/परिणामों/ विचारों में सरलता-कोमलता- सरसता- निर्मानता होगी, पापों से मन दूर होगा अत: अन्य उपलब्धि होने के अवसर होंगे।

जिन -दर्शन एक निर्दोष व्यक्तित्व का दर्शन कर स्वयं निर्दोष होने की भावना भाने का प्राथमिक कर्तव्य है।

स्वाध्याय करने से सुख-दुख, लाभ-हानि का वास्विक कारण जान सकेंगे, वास्तव में मैं कौन हूँ की पहचान कर सकेंगे, वस्तु स्वरूप का ज्ञान कर अंधविश्वासों से दूर रहकर उन्नत, अहंकार रहित जीवन जी सकेंगे।

रात्रि-भोजन- जमीकंद व बिना छने पानी का त्याग अहिंसक, वैज्ञानिक- स्वास्थ्यप्रद शुद्ध व स्वच्छ खान-पान की जैन पद्धति है। इसके पालन से आपके जीवन में करुणा- सादगी व सात्विकता का भाव जागृत होगा जो आपके व्यक्तित्व काे निखारेगा।

मित्रो! हम अपनी करुणामयी संस्कृति के पालन, प्रचार-प्रसार में अपना योगदान दे कर अपनी संस्कृति को सुरक्षित रखकर अपनी पहचान बनाने में अवश्य योगदान करें अन्यथा ५० वर्ष बाद ढ़ूढ़ते  रह जायेंगे कि जैन कौन होते हैं? कैसे होते हैं?

भवनों/मंदिरों से जीवंतता नहीं है (वह भी आवश्यक तो हैं) पर  वास्तव में हमारी पहचान हमारी संस्कृति से है।

निवेदक
*समर्पण*
समर्पण व्यक्ति नहीं भावना है।

आवश्यक नहीं है कि आप हमारे विचारों से सहमत हों, पर विचार कीजिये, पंथ/ सम्प्रदाय के संकुचित दायरे से बाहर निकल कर वीतरागी/ अहिंसक संस्कृति के पालन व प्रचार-प्रसार में सहभागी बनिये।

चैत्र शुक्ल सप्तमी (दशलक्षण पर्व का चतुर्थ दिवस उत्तम शौच) दिनांक १२/०४/१९
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*वैदिक गीता (कड़ी - २४० अन्तिम)*

*गीता सार*

इन टिप्पणियों से स्पष्ट है कि इस तथाकथित गीता सार में गीता की मूल भावना कहीं नहीं है। इसको पूरा पढ़ जाइए तो ऐसा प्रतीत होता है कि भगवद्गीता पूरी तरह अकर्मण्यता, भाग्यवाद और पलायनवाद का उपदेश देने वाली पुस्तक है। वास्तव में तो गीता के उपदेश इसके ठीक विपरीत हैं। इस तथाकथित ‘गीता सार’ में गीता के निष्काम कर्मयोग की छाया मात्र भी नहीं है।

इसलिए वास्तविक गीता सार निम्न प्रकार कहा जा सकता है-

आत्मा न तो कभी जन्म लेता है और न मरता है। यह अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है। शरीर के नष्ट होने पर भी यह नष्ट नहीं होताऽ जिस प्रकार मनुष्य अपने पुराने वस्त्रों को त्यागकर नये वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार जीवात्मा भी पुराने शरीरों को छोड़कर नये शरीरों को प्राप्त कर लेता है।
जो जन्म लेता है, उसकी मृत्यु निश्चित है और जो मरता है, उसका जन्म लेना निश्चित है। इसमें मनुष्य का कोई वश नहीं चलता। इसलिए मृत व्यक्तियों के लिए शोक करना उचित नहीं है।
कर्म करने में ही हमारा अधिकार है, उसके फल पर कभी नहीं। इसलिए हमें फल की इच्छा छोड़कर कर्म करना चाहिए और कर्म करने से बचना भी नहीं चाहिए।
सभी प्रकार की आसक्ति को छोड़कर और सफलता-असफलता को समान समझकर अपना कर्तव्य करना चाहिए। यही कर्मयोग है।ऽ अपने धर्म में भले ही कुछ कमियाँ हों, फिर भी वह दूसरों के धर्म से उत्तम है। अपने धर्म का पालन करते हुए मर जाना भी कल्याणकारी है।
अपने सभी करने योग्य कर्म ईश्वर को अर्पित करके अर्थात् उसी के लिए किया हुआ मानकर और निरासक्त होकर करने चाहिए। इससे कर्ता को उन कर्मों के दोष नहीं लगते।
मोह रहित, अहंकार रहित, धैर्य और उत्साह से पूर्ण तथा सफलता एवं असफलता में समान रहने वाला कर्ता ही श्रेष्ठ है।
काम, क्रोध और लोभ – ये तीनों नरक के द्वार तथा आत्मा का पतन करने वाले हैं। इसलिए इन्हें पूरी तरह त्याग देना चाहिए।
ईश्वर प्रत्येक प्राणी के शरीर में स्थित हैं, जो उसे अपनी माया से चलाता है, हमें उसी परमात्मा की शरण में जाना चाहिए।

सुधी जनों को चाहिए कि वे प्रचलित निरर्थक ‘गीता सार’ को छोड़कर इस वास्तविक गीता सार को हृदयंगम करके अपनायें और इसी को अपने कैलेंडरों, डायरियों, पत्रिकाओं, पैम्फलेटों आदि में छपवाकर प्रसारित करें।

*॥गीता सार समाप्त॥*

— *विजय कुमार सिंघल*