*हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है....?*
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*नर तन सम नहिं कवनिउ देही।*
*जीव चराचर जाचत तेही॥*
*नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी।*
*ग्यान बिराग भगति सुभ देनी॥*
मनुष्य शरीर के समान कोई शरीर नहीं है। चर-अचर सभी जीव उसकी याचना करते हैं। वह मनुष्य शरीर नरक, स्वर्ग और मोक्ष की सीढ़ी है तथा कल्याणकारी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति को देने वाला है॥
मनुष्य जन्म अत्यन्त ही दुर्लभ है, मनुष्य जीवन का केवल एक ही उद्देश्य और एक ही लक्ष्य होता है, वह भगवान की अनन्य-भक्ति प्राप्त करना है। अनन्य-भक्ति को प्राप्त करके मनुष्य सुख और दुखों से मुक्त होकर कभी न समाप्त होने वाले आनन्द को प्राप्त हो जाता है।
यहाँ सभी सांसारिक संबंध स्वार्थ से प्रेरित होते हैं। हमारे पास किसी प्रकार की शक्ति है, धन-सम्पदा है, शारीरिक बल है, किसी प्रकार का पद है, बुद्धि की योग्यता है तो उसी को सभी चाहते है न कि हमको चाहते है। हम भी संसार से किसी न किसी प्रकार की विद्या, धन, योग्यता, कला आदि ही चाहते हैं, संसार को नहीं चाहते हैं।
इन बातों से सिद्ध होता है संसार में हमारा कोई नहीं है, सभी किसी न किसी स्वार्थ सिद्धि के लिये ही हम से जुड़े हुए है। सभी एक दूसरे से अपना ही मतलब सिद्ध करना चाहते हैं।
जीवात्मा रूपी हम, संसार रूपी माया से अपना मतलब सिद्ध करना चाहते हैं और माया रूपी संसार हम से अपना मतलब सिद्ध करना चाहता है। हम माया को ठगने में लगे रहते है और माया हमारे को ठगने में लगी रहती है इस प्रकार दोनों ठग एक दूसरे को ठगते रहते हैं।
भ्रम के कारण हम समझते हैं कि हम माया को भोग रहें है जबकि माया जन्म-जन्मान्तर से हमारा भोग कर रही है
वास्तव में संसार को हमारे से जो अपेक्षा है, वही संसार हमारे से चाहता है। हमें अपनी शक्ति को पहचान कर संसार से किसी प्रकार की अपेक्षा न रखते हुए अपनी सामर्थ्य के अनुसार ही संसार की इच्छा को पूरी करनी चाहिए।
इस प्रकार से कार्य करने से ही जीवात्मा रूपी हम कर्म बंधन से मुक्त हो सकतें हैं। सामर्थ्य से अधिक सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति करने से हम पुन: कर्म बंधन में बंध जाते हैं। हमें कर्म बंधन से मुक्त होने के लिये ही कर्म करना होता है, कर्म बंधन से मुक्त होना ही मोक्ष है।
मनुष्य कर्म बंधन से मुक्त होने पर ही जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त होकर परम-लक्ष्य स्वरूप परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।
जब तक संसार को हम अपना समझते रहेंगे और संसार से किसी भी प्रकार की आशा रखेंगे, तब तक परम-लक्ष्य की प्राप्ति असंभव है।
जब तक अपना सुख, आदर, सम्मान चाहते रहेंगे तब तक परमात्मा को अपना कभी नहीं समझ सकेंगे। परमात्मा की कितनी भी बातें कर लें, सुन भी लें, पढ़ भी लें लेकिन जब तक सुख की चाहत बनी रहेगी तब तक भगवान में मन नहीं लग पायेगा।
हम परमात्मा से परमात्मा को नहीं चाहते है, हम परमात्मा से संसारिक सुख, सांसारिक मान, सांसारिक सम्पदा चाहते हैं।
जब तक हमारे अन्दर परमात्मा से परमात्मा को ही पाने की चाहत नहीं होगी तब तक परमात्मा को कैसे प्राप्त हो सकेंगे? संसारिक सभी रिश्ते तो स्वार्थ के रिश्ते हैं, हमारी जितनी सामर्थ्य हो सके उतना ही सांसारिक रिश्तों को निभाने का प्रयत्न करना चाहिये।
हमें अपनी शक्ति-सामर्थ्य के अनुसार ही संसार की सेवा करनी चाहिये, स्वयं के सुख-सुविधा की अपेक्षा संसार से नही करनी चाहिये।
परमात्मा में हमारा मन तभी लग पायेगा जब तक हम यह नहीं समझ लेंगे कि संसार में न तो हमारा कभी कोई था, न ही कभी कोई हमारा होगा और न ही कोई हमारा है। केवल भगवान ही हमारे थे,
भगवान ही हमारे हैं और भगवान ही हमारे रहेंगे। इस संसार में कोई हमारा हो भी नहीं सकता है जो हमें चिर स्थाई सुख-सुविधा और प्रसन्नता दे सके। संसार में तो सभी सुख-सुविधा के भूखे हैं, मान के भूखे हैं, संपत्ति के भूखे हैं तो वह हमारे को सुख-सुविधा, मान-सम्मान, धन-संपदा कैसे दे सकते हैं?
किसी कवि ने लिखा है........
*दाता एक राम, भीखारी सारी दुनियाँ।*
*राम एक देवता, पुजारी सारी दुनियाँ*
संसार में तो हर कोई भिखारी हैं। इस संसार में तो हर एक भिखारी हर दूसरे भीखारी से भीख ही तो माँग रहा है लेकिन भ्रम के कारण स्वयं को दाता समझता है। जब कि दाता तो केवल परमात्मा ही है। हम जहाँ भी जाते है, वहाँ अपना स्वार्थ और अपनी सुख-सुविधा ही देखते हैं।
अपने मान की अपेक्षा रखते हैं, अपना स्वागत चाहते हैं, अपनी तारीफ सुनना चाहते है। यह सब हमें संसार से मिलता तो है यह सब क्षणिक मात्रा में लेकिन धोखा अधिक मिलता है। हमें दूसरों को सुख और प्रेम देना चाहिये परन्तु लेने की अपेक्षा नहीं करनी चाहिये।
मनुष्य के लिये दूसरों की सेवा करना और भगवान को निरन्तर याद करना यह दो कर्म मुख्य है। यदि जो मनुष्य यह दो कर्म नहीं करता हैं तो वह मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं होता है, बल्कि ऎसा मनुष्य पशु-पक्षीयों के समान ही होता है।
जब हम किसी भी व्यक्ति से आदर-सम्मान चाहते हैं उससे हमें सम्मान नही मिलता है तो हमें कष्ट का अनुभव होता है तब हम कहते हैं वह व्यक्ति अच्छा नहीं है। यह किसी को जानने की कसौटी नहीं है।
बिना किसी मतलब के हर किसी का आदर-सम्मान तो भगवान और भगवान के भक्त महात्मा लोग ही किया करते है। जब तक हमारे अन्दर आदर-सत्कार पाने की इच्छा है, तब तक यह बात हम समझ नहीं सकते हैं।
संत कबीर दास जी कहते हैं..........
*बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।*
*जो मन खोजा आपना, तो मुझसे बुरा न कोय॥*
जब तक हम अपने मतलब की बात सोचते रहेंगे तब तक यही दिखलाई देगा कि भगवान ने हमारे को दुःख दे दिया, भगवान ने हमारे साथ यह कर दिया, संत-महात्मा ने यह कर दिया ऎसा उन्हे नहीं करना चाहिये। जब कि वास्तव में दोष हमारा स्वयं का ही है, संसार की वस्तु ही चाहते है। यदि परमात्मा को ही चाहेंगे तो सांसारिक सुख की इच्छा नहीं रहेगी।
जिस दिन परमात्मा को पाने की इच्छा जाग्रत हो जायेगी उसी दिन से संसार से कुछ भी पाने की इच्छा समाप्त हो जायेगी। जब हमें संसार से मान-सम्मान, पद-प्रतिष्ठा और स्वयं की तारीफ अच्छी न लगे तब समझना चाहिये कि परमात्मा को पाने की इच्छा उत्पन्न हुई है।
जब हम परमात्मा को चाहते हैं तब हमें अपमान, दुःख और किसी भी प्रकार की प्रतिकूलता में भी प्रसन्नता और आनंद का अनुभव होता है।
यह बात कुछ ऐसी है..... हमारी समझ में आये या न आये लेकिन महात्माओं से सुना है, जब कभी बीमार पड़ गये और कोई पानी पिलाने वाला न हो तो भी आनंद मिलता है। यदि कोई हमारी सेवा करता है तो वह भी अच्छा नहीं लगता है। यह बात हर किसी की समझ में नहीं आयेगी लेकिन सत्य है।
जो जगदीश का प्रेमी होता है उसको जगत के सुख अच्छे नहीं लगते हैं और जिसे सांसारिक सुख अच्छे लगते हैं तो उसको परमात्मा से प्रेम कैसे हो सकता है? इस ज्ञान को ग्रहण करने की शक्ति व्यक्ति के विवेक जाग्रत होने पर ही मिल सकती है।
श्री राम चरित मानस में तुलसी दास जी कहते हैं.........
*बिनु सत्संग विवेक न होई, राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।*
*सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला॥*
सत्संग के बिना मनुष्य का विवेक जाग्रत नहीं होता और सत्संग श्री राम जी की कृपा के बिना नहीं मिलता है। संतों की संगति आनंद और कल्याण का मुख्य मार्ग है, संतों की संगति ही परम-सिद्धि का फल है और सभी साधन तो फूल के समान है।
भगवान की कृपा निष्काम भाव से कर्तव्य समझ कर कर्म करने से प्राप्त होती है। इसलिये मनुष्य को संसार में भगवान की कृपा प्राप्त करने के लिये ही कर्म करना चाहिये। मनुष्य का संसार में विश्वास पतन का कारण होता है, और ईश्वर में विश्वास शाश्वत-सुख और परम-शान्ति का कारण होता है।
हम किसी का कहना मानें यह हमारे वश की बात है, कोई हमारा कहना मानें यह हमारे वश की बात नहीं होती है। इसी प्रकार किसी को सुख देना हमारे हाथ में होता है परन्तु किसी से सुख पाना हमारे हाथ में नहीं होता है। जो हमारे हाथ की बात है,
उसे करना ही स्वयं का उद्धार का कारण होती है, और जो हमारे हाथ की बात नहीं है उसे करना स्वयं के पतन का कारण होती है।
यदि हमें परमात्मा की तरफ चलना है तो हमें सांसारिक सुख अच्छे नहीं लगने चाहिए। जब हम पिछले कदम को छोड़ते हैं तभी हम आगे चल पाते हैं, जैसे-जैसे हम पिछले कदमों को छोड़ते जाते हैं
उतने ही आगे बढ़ते चले जाते हैं। इस प्रकार से आगे बढ़ते रहने से एक दिन मंज़िल पर पहुँच ही जायेंगे। यदि हम पिछले कदम को छोड़ेंगे नहीं तो आगे नही बढ़ सकते हैं इसी प्रकार हम सांसारिक सुख को छोड़ने की इच्छा करेंगे तभी परमात्मा का आनन्द प्राप्त कर पायेंगे।
दो नावों में सवार होकर नहीं चला जा सकता है। एक संसार रूपी भौतिक नाव है, दूसरी परमात्मा रूपी आध्यात्मिक नाव है। जब तक संसार रूपी नाव से नहीं उतरोगे तब तक परमात्मा रूपी नाव पर सवार कैसे हो सकते हैं?
जब संसार के लोग हमारा आदर करते है तो हमें समझना चाहिये कि हमारे ऊपर भगवान की कृपा है। वह हमारा आदर नहीं कर रहें हैं वह तो भगवान का आदर कर रहें होते हैं।
जिस प्रकार किसी पद पर आसीन व्यक्ति को कोई सलाम करता है तो वह सलाम उस व्यक्ति के लिये न होकर उस पद के लिये होता है। हमारा आदर तो केवल भगवान ही कर सकते है।
संसार में जब तक किसी व्यक्ति का स्वार्थ नहीं होता है तब तक वह किसी का भी आदर नहीं कर सकता है।
आज तक का इतिहास उठाकर देख लो इस संसार से कभी कोई तृप्त नही हुआ है। जो वस्तु जिसके पास अधिक है उसको उसकी उतनी ही अधिक ज़रुरत रहती है। जिसके पास धन अधिक है, उसको और अधिक धन पाने की इच्छा होती है।
जिस निर्धन व्यक्ति के पास रुपये नहीं है उसको पचास, सौ रुपये मिल जायेगें तो समझेगा कि बहुत मिल गया लेकिन जो जितना धनवान व्यक्ति होता है उसकी भूख उस निर्धन व्यक्ति से अधिक होती है।
संसार में हमें सुख-सम्पत्ति का त्याग नहीं करना है, परन्तु सुख-सम्पत्ति को पाने की इच्छा का त्याग करना चाहिये।
यह इच्छा ही तो हमारे पतन का कारण बनती आयी है। ज्ञान के द्वारा ही संसार का त्याग हो सकता है और सम्पूर्ण विश्वास के साथ ही परमात्मा से प्रेम हो सकता है। जिनसे भी हमारा संसारिक संबन्ध है उन सभी का हमारे ऊपर पूर्व जन्मों का कर्जा है, उन सभी का कर्जा चुकाने के लिये ही तो यह शरीर मिला है।
कर्जा तो हम चुकता करते हैं लेकिन साथ ही नया कर्जा हम फिर से चढ़ा लेते हैं। जब तक हम कर्जदार रहेंगे तो मुक्त कैसे हो सकते हैं। यह तभी संभव हो सकेगा जब कि हम इस संसार से नया कर्जा नहीं लेंगे। संसार तो केवल हमसे वस्तु ही चाहता है, हमारे को कोई नहीं चाहता है।
हम सभी के ऊपर मुख्य रूप से दो प्रकार का ही कर्जा है, एक शरीर जो प्रकृति का कर्जा है, दूसरा आत्मा जो परमात्मा का कर्जा है।
इसलिये हमें संसार से किसी भी वस्तु को पाने की इच्छा का त्याग कर देना चाहिये और शरीर सहित जो कुछ भी सांसारिक वस्तु हमारे पास है उसे सहज मन-भाव से संसार को ही सोंपना देनी चाहिये।
हम स्वयं आत्मा स्वरूप परमात्मा के अंश हैं इसलिये स्वयं को सहज मन-भाव से परमात्मा को सोंप चाहिये यानि भगवान के प्रति मन से, वाणी से और कर्म से पूर्ण समर्पण कर देना चाहिये। यही मानव जीवन का एक मात्र उद्देश्य है।
यही मनुष्य जीवन का एक मात्र लक्ष्य है। यही मानव जीवन की परमसिद्धि है। यही वास्तविक मुक्ति है। यह मुक्ति शरीर रहते हुए ही प्राप्त होती है। इसलिये यह मनुष्य जन्म अत्यन्त दुर्लभ है।
Written by सुनील झा 'मैथिल'
Sunday, June 23, 2019
Wednesday, June 12, 2019
ज्ञान , वैराग्य, माया , भक्ति , जीव और ईश्वर
तुलसीकृत श्रीरामचरित मानस को लगभग सभी ने पढ़ा और सुना है, लेकिन वनवास के दौरान पंचवटी में भगवान श्रीराम जी व लक्ष्मण जी के मध्य जो सबसे महत्वपूर्ण संवाद हुआ था, शायद ही इस ओर किसी का ध्यान गया होगा। वैसे अब भी बहुत कम लोग होंगे, जिन्हें यह पढ़ने के बाद भी पसंद या समझ आए। जो इसके भाव को समझ सकें एवं जीवन में उतार सकें, उनके लिए समर्पित है यह लेख।
लक्ष्मण जी ने राम जी से अपने मन में उठ रही जिज्ञासा को पांच प्रश्नों के रूप में पूछा था। इसे यदि कोई अपने जीवन में अपना ले तो उसका जीवन पूरी तरह बदल सकता है।
लक्ष्मण जी ने पंचवटी में भगवान श्रीराम जी से पूछा था :
1- ज्ञान किसको कहते हैं?
2- वैराग्य किसको कहते हैं?
3- माया का स्वरूप बतलाइये?
4- भक्ति के साधन बताइये कि भक्ति कैसे प्राप्त हो?
5- जीव और ईश्वर में भेद बतलाइये?
भगवान श्री राम लक्ष्मण जी की बात सुनकर कहते हैं :
थोरेहि महं सब कहउं बुझाई।
सुनहु तात मति मन चित्त लाई।।
अर्थात- थोड़े में ही सब समझा देता हूं। यही विविधता है कि थोड़े में ही ज्यादा समझा देता हू्ं।
1- पहले भगवान ने माया वाला सवाल उठाया है क्योंकि पहले माया को जान लेना चाहिए। भगवान कहते हैं कि माया वैसे तो अनिर्वचनीय है लेकिन फिर भी -
मैं अरु मोर तोर तैं माया।
जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया।।
अर्थात- मैं, मेरा और तेरा - यही माया है, केवल छह शब्दों में बता दिया। मैं अर्थात् जब ''मैं'' आता है तो ''मेरा'' आता है और जहां ''मेरा'' होता है वहां ''तेरा'' भी होता है- तो ये भेद माया के कारण होता है।
माया के भी दो भेद बताये हैं, एक विद्या और दूसरी अविद्या।
एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा।
जा बस जीव परा भवकूपा।।
एक रचइ जग गुन बस जाकें।
प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताकें।।
अर्थात- अविद्या रूपी माया जीव को जन्म-मरण के चक्कर में फंसाती है, भटकता रहता है जीव जन्म अथवा मृत्यु के चक्कर में। और दूसरी विद्या रूपी माया मुक्त करवाती है।
2- दूसरा प्रश्न- ज्ञान किसको कहते हैं?
अर्थात- हम ज्ञानी किसे कहेंगे?, जो बहुत प्रकांड पंडित हो, शास्त्रों को जानता हो, बड़ा ही अच्छा प्रवचन कर सकता हो, दृष्टांत के साथ सिद्धांत को समझाये, संस्कृत तथा अन्य बहुत सी भाषाओं का जिसे ज्ञान हो क्या वह ज्ञानी है?
गोस्वामी तुलसीदास जी ने बड़ी अद्भुत व्याख्या की है।
ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं।
देख ब्रह्म समान सब माहीं।।
अर्थात- ज्ञान उसको कहते हैं- जहां मान न हो अर्थात् जो मान-अपमान के द्वन्द्व से रहित हो और सब में ही जो ब्रह्म को देखे। ज्ञान के द्वारा जब ईश्वर की सर्वव्यापकता का अनुभव हो जाता है तो व्यक्ति सब ही में भगवान को देखने लग जाता है।
3- तीसरा प्रश्न- वैरागी किसको कहेंगे?
अर्थात- हमारी परिभाषा यह है कि भगवा कपड़े पहने हो या फिर सांसारिकता को त्याग दिया हो, सिर पर जटायें हो, माथे पर तिलक हो, हाथ में माला लिए हुए हो, क्या वह वैरागी है?
भगवान श्री राम कहते हैं :
कहिअ तात सो परम बिरागी।
तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी।।
अर्थात- परम वैरागी वह है, जिसने सिद्धियों को तृन अर्थात् तिनके के समान तुच्छ समझा। कहने का तात्पर्य है कि जो सिद्धियों के चक्कर में नहीं फंसता और तीनि गुन त्यागी अर्थात् तीन गुण प्रकृति का रूप यह शरीर है- उससे जो ऊपर उठा अर्थात् शरीर में भी जिसकी आसक्ति नहीं रही- वही परम वैरागी है।
4- चौथा प्रश्न- जीव और ईश्वर में भेद-
माया ईस न आपु कहुं जान कहिअ सो जीव।
बंध मोच्छ प्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव।।
अर्थात् जो माया को, ईश्वर को और स्वयं को नहीं जानता, वह जीव है और जीव को उसके कर्मानुसार बंधन तथा मोक्ष देने वाला ईश्वर।
5- पांचवां प्रश्न- जिनसे भक्ति प्राप्त हो जाए, भक्ति के वे साधन कौन से हैं?
भगवान श्री राम कहते हैं :
भगति कि साधन कहउँ बखानी। सुगम पंथ मोहि पावहिं प्रानी।।
प्रथमहिं विप्र चरन अति प्रीती। निज निज कर्म निरत श्रुति रीती।।
एहि कर फल पुनि विषय विरागा। तब मम धर्म उपज अनुरागा।।
श्रवनादिक नव भक्ति दृढ़ाही। मम लीला रति अति मन माहीं।।
अर्थात- भक्ति के साधन बता रहा हूं, जिससे प्राणी मुझे बड़ी सरलता से पा लेता है। सबसे पहले विप्रों के चरण विपरें। विप्र का अर्थ है, जिसका जीवन विवेक प्रदान हो, ऐसे विप्रों के चरण विपरें। वेदों के बताए मार्ग पर चलें, अपने कर्तव्य-कर्म का पालन करें। इससे विषयों में वैराग्य होगा तथा वैराग्य उत्पन्न होने पर भगवान के (भागवत) धर्म में प्रेम होगा। तब श्रवणादिक नौ प्रकार की भक्तियां आ जाएंगी और भगवान की लीलाओं से प्रेम हो जाएगा।
संतों के चरणों में प्रेम हो, मन, कर्म और वचन से भगवान का भजन करे तथा गुरु, पिता, माता, भाई, पति और देवता सबमें मुझे ही देखे, सबको वंदन करे, सबकी सेवा करे। इतना कर ले, तो समझो मिल भक्ति मिल गई। अब भक्ति मिली है या नहीं, इसका हमें कैसे पता चले... तो इसके लिये दो चौपाई और बताई हैं।
मम गुन गावत पुलक सरीरा। गदगद गिरा नयन बह नीरा।।
काम आदि मद दंभ न जाकें। तात निरंतर बस मैं ताकें।।
अर्थात- मेरे गुणों को गाते समय जिसका तन पुलकायमान हो उठे, शरीर पुलकित हो जाए, वाणी गदगद हो जाए और नेत्रों से नीर बहने लगे। इसके साथ ही... "काम आदि मद दंभ न जाके"
जिसमें काम (विकार) न हो, मद (अहंकार) न हो और सबसे बड़ी बात दंभ (पाखंड) न हो- वही भक्त है। भगवान ऐसे भक्त के सदा वश में रहते हैं।
दोहा- बचन कर्म मन मोरि गति भजन करहिं नि:काम।
तिन्ह के हृदय कमल महुं करउँ सदा बिश्राम।।
आगे भगवान कहते हैं- जिसको मन, कर्म और वचन से मेरा ही आश्रय है तथा जो निष्काम भाव से मेरा भजन करता है, उसके हृदय में मैं सदा विश्राम करता हूं।
_____________________________
Jawan में दो पक्ष हैं ।
प्रथम वयक्त
दूसरा अवयकत।
वयक्त हमारा देह,इन्द्रिय मन बुद्धि इनसे माने हुए सभी रिश्ते नाते पुत्र,मित्र,पत्नी,पति माता पिता आदि सभी प्रिय जन,वित्त,समृद्धि मान सम्मान प्रतिष्ठा यश कीर्ति जो जो भी संपत्ति इस संसार मै अर्जित की है वह सब वयक्त उपकरणौ से ही प्राप्त है,इनका फल अवयकत की (भगवान) की प्राप्ति असंभव है।
अवयकय की प्राप्ति अवयकत (अपने स्वरूप) को जानने से ही होगी।मै कौन हू।मै भगवान(अंशी का) अंश हू।एक ही जाति का हू।किन्तु भगवान से बिछौडने के कारण अपने स्वरूप और अपने अंशी को भूला हुआ हू।और पहिले वयक्त पक्ष से संबंध जोड रखा है।मनुष्य जन्म अति दुर्लभ है।इसी से भगवान् की प्राप्ति संभव है।भगवान का भजन,कीर्तन गुणगान, सत्संग सेवा संतौ की सेवा सत्संग ही जीव को उसके स्वरूप का (अंश होने का) ज्ञान और अंशी (भगवान) का ज्ञान करा कर ऐक दूसरे मै प्रेम और आनंद की अनुभूति स्वतः ही होगी।इसके लिए विवेक धैर्य और भक्ति और सबसे अधिक शरणागति फल स्वरूप प्राप्त होकर संसार से वैराग्य और गुणातीत भगवान् मै व्याकुलता पैदा होती है।फिर तो सांस सांस मै उसी श्री कृष्ण की सूरत दिखाईं सुनाईं देंगी ।
लक्ष्मण जी ने राम जी से अपने मन में उठ रही जिज्ञासा को पांच प्रश्नों के रूप में पूछा था। इसे यदि कोई अपने जीवन में अपना ले तो उसका जीवन पूरी तरह बदल सकता है।
लक्ष्मण जी ने पंचवटी में भगवान श्रीराम जी से पूछा था :
1- ज्ञान किसको कहते हैं?
2- वैराग्य किसको कहते हैं?
3- माया का स्वरूप बतलाइये?
4- भक्ति के साधन बताइये कि भक्ति कैसे प्राप्त हो?
5- जीव और ईश्वर में भेद बतलाइये?
भगवान श्री राम लक्ष्मण जी की बात सुनकर कहते हैं :
थोरेहि महं सब कहउं बुझाई।
सुनहु तात मति मन चित्त लाई।।
अर्थात- थोड़े में ही सब समझा देता हूं। यही विविधता है कि थोड़े में ही ज्यादा समझा देता हू्ं।
1- पहले भगवान ने माया वाला सवाल उठाया है क्योंकि पहले माया को जान लेना चाहिए। भगवान कहते हैं कि माया वैसे तो अनिर्वचनीय है लेकिन फिर भी -
मैं अरु मोर तोर तैं माया।
जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया।।
अर्थात- मैं, मेरा और तेरा - यही माया है, केवल छह शब्दों में बता दिया। मैं अर्थात् जब ''मैं'' आता है तो ''मेरा'' आता है और जहां ''मेरा'' होता है वहां ''तेरा'' भी होता है- तो ये भेद माया के कारण होता है।
माया के भी दो भेद बताये हैं, एक विद्या और दूसरी अविद्या।
एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा।
जा बस जीव परा भवकूपा।।
एक रचइ जग गुन बस जाकें।
प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताकें।।
अर्थात- अविद्या रूपी माया जीव को जन्म-मरण के चक्कर में फंसाती है, भटकता रहता है जीव जन्म अथवा मृत्यु के चक्कर में। और दूसरी विद्या रूपी माया मुक्त करवाती है।
2- दूसरा प्रश्न- ज्ञान किसको कहते हैं?
अर्थात- हम ज्ञानी किसे कहेंगे?, जो बहुत प्रकांड पंडित हो, शास्त्रों को जानता हो, बड़ा ही अच्छा प्रवचन कर सकता हो, दृष्टांत के साथ सिद्धांत को समझाये, संस्कृत तथा अन्य बहुत सी भाषाओं का जिसे ज्ञान हो क्या वह ज्ञानी है?
गोस्वामी तुलसीदास जी ने बड़ी अद्भुत व्याख्या की है।
ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं।
देख ब्रह्म समान सब माहीं।।
अर्थात- ज्ञान उसको कहते हैं- जहां मान न हो अर्थात् जो मान-अपमान के द्वन्द्व से रहित हो और सब में ही जो ब्रह्म को देखे। ज्ञान के द्वारा जब ईश्वर की सर्वव्यापकता का अनुभव हो जाता है तो व्यक्ति सब ही में भगवान को देखने लग जाता है।
3- तीसरा प्रश्न- वैरागी किसको कहेंगे?
अर्थात- हमारी परिभाषा यह है कि भगवा कपड़े पहने हो या फिर सांसारिकता को त्याग दिया हो, सिर पर जटायें हो, माथे पर तिलक हो, हाथ में माला लिए हुए हो, क्या वह वैरागी है?
भगवान श्री राम कहते हैं :
कहिअ तात सो परम बिरागी।
तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी।।
अर्थात- परम वैरागी वह है, जिसने सिद्धियों को तृन अर्थात् तिनके के समान तुच्छ समझा। कहने का तात्पर्य है कि जो सिद्धियों के चक्कर में नहीं फंसता और तीनि गुन त्यागी अर्थात् तीन गुण प्रकृति का रूप यह शरीर है- उससे जो ऊपर उठा अर्थात् शरीर में भी जिसकी आसक्ति नहीं रही- वही परम वैरागी है।
4- चौथा प्रश्न- जीव और ईश्वर में भेद-
माया ईस न आपु कहुं जान कहिअ सो जीव।
बंध मोच्छ प्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव।।
अर्थात् जो माया को, ईश्वर को और स्वयं को नहीं जानता, वह जीव है और जीव को उसके कर्मानुसार बंधन तथा मोक्ष देने वाला ईश्वर।
5- पांचवां प्रश्न- जिनसे भक्ति प्राप्त हो जाए, भक्ति के वे साधन कौन से हैं?
भगवान श्री राम कहते हैं :
भगति कि साधन कहउँ बखानी। सुगम पंथ मोहि पावहिं प्रानी।।
प्रथमहिं विप्र चरन अति प्रीती। निज निज कर्म निरत श्रुति रीती।।
एहि कर फल पुनि विषय विरागा। तब मम धर्म उपज अनुरागा।।
श्रवनादिक नव भक्ति दृढ़ाही। मम लीला रति अति मन माहीं।।
अर्थात- भक्ति के साधन बता रहा हूं, जिससे प्राणी मुझे बड़ी सरलता से पा लेता है। सबसे पहले विप्रों के चरण विपरें। विप्र का अर्थ है, जिसका जीवन विवेक प्रदान हो, ऐसे विप्रों के चरण विपरें। वेदों के बताए मार्ग पर चलें, अपने कर्तव्य-कर्म का पालन करें। इससे विषयों में वैराग्य होगा तथा वैराग्य उत्पन्न होने पर भगवान के (भागवत) धर्म में प्रेम होगा। तब श्रवणादिक नौ प्रकार की भक्तियां आ जाएंगी और भगवान की लीलाओं से प्रेम हो जाएगा।
संतों के चरणों में प्रेम हो, मन, कर्म और वचन से भगवान का भजन करे तथा गुरु, पिता, माता, भाई, पति और देवता सबमें मुझे ही देखे, सबको वंदन करे, सबकी सेवा करे। इतना कर ले, तो समझो मिल भक्ति मिल गई। अब भक्ति मिली है या नहीं, इसका हमें कैसे पता चले... तो इसके लिये दो चौपाई और बताई हैं।
मम गुन गावत पुलक सरीरा। गदगद गिरा नयन बह नीरा।।
काम आदि मद दंभ न जाकें। तात निरंतर बस मैं ताकें।।
अर्थात- मेरे गुणों को गाते समय जिसका तन पुलकायमान हो उठे, शरीर पुलकित हो जाए, वाणी गदगद हो जाए और नेत्रों से नीर बहने लगे। इसके साथ ही... "काम आदि मद दंभ न जाके"
जिसमें काम (विकार) न हो, मद (अहंकार) न हो और सबसे बड़ी बात दंभ (पाखंड) न हो- वही भक्त है। भगवान ऐसे भक्त के सदा वश में रहते हैं।
दोहा- बचन कर्म मन मोरि गति भजन करहिं नि:काम।
तिन्ह के हृदय कमल महुं करउँ सदा बिश्राम।।
आगे भगवान कहते हैं- जिसको मन, कर्म और वचन से मेरा ही आश्रय है तथा जो निष्काम भाव से मेरा भजन करता है, उसके हृदय में मैं सदा विश्राम करता हूं।
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Jawan में दो पक्ष हैं ।
प्रथम वयक्त
दूसरा अवयकत।
वयक्त हमारा देह,इन्द्रिय मन बुद्धि इनसे माने हुए सभी रिश्ते नाते पुत्र,मित्र,पत्नी,पति माता पिता आदि सभी प्रिय जन,वित्त,समृद्धि मान सम्मान प्रतिष्ठा यश कीर्ति जो जो भी संपत्ति इस संसार मै अर्जित की है वह सब वयक्त उपकरणौ से ही प्राप्त है,इनका फल अवयकत की (भगवान) की प्राप्ति असंभव है।
अवयकय की प्राप्ति अवयकत (अपने स्वरूप) को जानने से ही होगी।मै कौन हू।मै भगवान(अंशी का) अंश हू।एक ही जाति का हू।किन्तु भगवान से बिछौडने के कारण अपने स्वरूप और अपने अंशी को भूला हुआ हू।और पहिले वयक्त पक्ष से संबंध जोड रखा है।मनुष्य जन्म अति दुर्लभ है।इसी से भगवान् की प्राप्ति संभव है।भगवान का भजन,कीर्तन गुणगान, सत्संग सेवा संतौ की सेवा सत्संग ही जीव को उसके स्वरूप का (अंश होने का) ज्ञान और अंशी (भगवान) का ज्ञान करा कर ऐक दूसरे मै प्रेम और आनंद की अनुभूति स्वतः ही होगी।इसके लिए विवेक धैर्य और भक्ति और सबसे अधिक शरणागति फल स्वरूप प्राप्त होकर संसार से वैराग्य और गुणातीत भगवान् मै व्याकुलता पैदा होती है।फिर तो सांस सांस मै उसी श्री कृष्ण की सूरत दिखाईं सुनाईं देंगी ।
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